अम्मा कहती थी "इजा इतु हेलासारी झन करे भयार झाली मांस बेच खानना "(बेटा इतनी लापरवाह मत बनो शहर जाओगी वहां लोग बेच देंगे तुम्हे ) इस बात को मैं हवा में उड़ा देती थी। अब क्या? मैं तो शहर में ही हूं,करीबन 16 महीने से शहर की चकाचौंध में घुलती मिलती जीवन जी रही हूं, अब तक बेची तो नहीं गई,हां मगर सब मुझसे मुहब्बत करते हैं, ये एक ग़लतफहमी भी हो सकती है शायद!
शरीर बिकना ही बेचने की क्रिया नहीं होती.. अम्मा तो अन्य परिपेक्ष में इसे दुहराती थ।मासूमियत, विचार, ईमानदारी, समझ, कल्पनाओं का बिकना शरीर से ज्यादा महंगा है..कम से कम मेरे लिए तो है, इनमें से आधी चीज़ें मैं गवा चुकी हूं..पहाड़ में कहते हैं हम पहाड़ी ठेरे बल हमारे यहाँ रास्ते टेड़े मेढे, आदमी कतई सीधे। इसी रूप को ओढ़े जब मैं दुनिया के सामने उतरी तो मेरे सीधे उल्लू को सच में ऊँगली टेड़ी कर निकाल ही दिया..अब मैं रेल की पटरी हूं पहाड़ के मोड़ नहीं।
एक बंधु को मैंने जब यही बात कही तो वो बोला शहर में जीवन जीने के लिए थोड़ा चालाक तो होना ही पड़ता है, मैंने उस से पूछ लिया कि जीवन जीना क्या है मित्र? मैं तो पहाड़ो में थी तब भी जीवन जी रही थी उसके लिए मुझे कुछ करना नहीं पड़ा, उसने झटके से मेरी ओर देखा और कहाँ यही बुद्धि रही तो कुचली जाओगी भीड़ में।
मैंने एक और उल्टा प्रश्न पूछ लिया "शायद ये बस हमारी धारणा हो असल में शहर सिर्फ बदनाम किया गया जाता होगा किसी विदेशी, द्वारा ये मानकर की यहाँ उंगली टेड़ी कर के ही घी निकल पाएगा. शायद शहर के बीचो-बीच एक गांव बसा होगा जो घी को गरम करना जानता होगा, तुम और मैं उस गांव में नहीं जाना चाहते, हम बचना चाहते है शहर को साफ मान लेने से, हम बचना चाहते है चकोर को टेड़ा गड़बड़या मान लेने से.. हम बचना चाहते है सरल जीवन से, हम बचना चाहते है भरोसा करने से, हम बचना चाहते हैईमानदारी दिखाने से हम बचना चाहते है खुली आखों प्रेम करने से?
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