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माता पिता और देवता ,गुरु की करों आलोचना

"माता पिता गुरु देवता" दूसरी कक्षा में थी तब मां ने बताया था कि देवता तो चौथे स्थान में आते है बेटा ! जिस देवता को मैं पूजती हूं दरअसल उस से आगे तो मैं ही हूं।

अब इसे मैंने ऐसे समझा कि मां हैरारकी में ईश्वर से ऊपर है फिर पिताजी मां के अंडर आते है फिर गणित वाले गुरुजी और तब जाके कहीं वो ईष्ट जिसे हमने अपने घर का एक कमरा पूरा मंदिर के रूप में दे दिया है।

ये तब तक ठीक था जब तक पाउलो फेयर की पेडागॉजी ऑफ द ऑप्रेस्ड मेरे सामने आके खड़ी नहीं हो गई।

हाय! मेरी मोटी बुद्धि ये सुनके बड़ी मचलने लगी उत्पीड़ों की शिक्षा प्रणाली , भला ये कैसा सिद्धांत है?

कक्षा में इसकी चर्चा हुई ध्यान से सुना हजार प्रश्न सर पर सवार हो गए ।

मोटा- मोटा जो समझ आया वो ये था की सिद्धांत कहता है - शिक्षक विद्यार्थियों को खाली घड़े के समान समझता है और उसके भीतर वहीं भरता है जो वो चाहता है। यानी पीछले 15 साल से मैंने जितनी पढ़ाई की है वो मेरे जीवन में आने वाले शिक्षकों की मनमानी है। उन्होंने जो चाहा मैंने सिर्फ उतना ही जाना ?

तो यह कहना ठीक होगा कि मेरी किसी विषय में दुर्बलता असल में मेरी दुर्बलता नहीं मेरे गुरु की है। मैं तो वो आइना हूं जो अपने गुरु को प्रतिबिंबित कर रही हूं ?

शायद इसपर बहुत लोग यह कहेंगे की अपनी कमियों को अपने गुरुओं पर थोप रही हूं ,शायद ऐसा होगा भी ।

लेकिन इस से पहले मैं एक किस्सा सांझा करती हूं ।

हजारों बच्चों की तरह गणित में मेरा मन नहीं लगता था मुझे खीज होती थी , छठी कक्षा तक इतनी भी कमजोर नही रही जितनी आगे की कक्षाओं में हो गई । वो इसलिए क्योंकि सातवी कक्षा से गणित के शिक्षक बदल दिए गए और मैंने पहली बार अपने जीवन में शिक्षक का एक भयावीह रूपों का सामना किया ।

जिन्होंने मुझे अहसास दिलाया कि अगर एक आसान सवाल का उत्तर गलत आ रहा है तो मैं महामूर्ख हूं। मुझे तो पूरी कक्षा के सामने बेज्जत होने की बेहद जरूरत है। और मुझे बुद्धू बच्चों की श्रेणी में डाल दिया जाए जिसका टैग लेकर मैं थोड़ी मेहनत कर लूं ।

लेकिन क्या मेहनत की? बिलकुल नहीं मैने गणित से मुंह फेर दिया उस शिक्षक से कभी आंख नहीं मिलाई , किसी दिन सवाला सबसे पहले भी बना उत्तर भी आया लेकिन कक्षा में हाथ खड़ा नही किया क्योंकि उस शिक्षक की शबासियों में तारीफ से ज्यादा तंज लगे।

आगे की कक्षाओं में आते आते अनुभव और अधिक बेकार होता रहा। मैं यह शिकायत नहीं लिख रही दरअसल मुझे अब ये बाते परेशान भी नहीं करती। मेरे लिए शिक्षक तो उसी दिन से एक आम आदमी जैसा हो गया जिस दिन उस मास्टर ने मुझे स्कूल के कोरिडोर में जकड़ लिया और अपने सांसे सूंघाने की कोशिश करी। मैंने उसी समय ये जान लिया था कि वो किसी गली चौराहे में बैठने वाले आदमियों से कम नहीं है ।फिर मुझे उसे भगवान समझने की गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए।

अब आप कहेंगे की हर शिक्षक ऐसा भी तो नहीं , मैं कहूंगी कतई नहीं मुझे एक से एक गुरुओं की छाया मिली ,उनके भरोसे से मैंने बहुत कुछ हासिल किया लेकिन मैने उन्हे कभी मास्टर जी न कहकर भाई या दोस्त की उपाधि दी क्या ये गलत है?

और हम बात कर रहे हैं पेडागॉजी ऑफ द ऑप्रेस्ड को जमीनी स्तर पर समझने की भारत जैसे देश में जहां शिक्षक के पैर न छुएं तो वो मुंह फुला ले ,वहां उसकी आलोचना उसी के सामने, उसका खंडन उसी के समक्ष करने की बाते केवल किताबों तक ही सीमित रह सकती है।

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Pallavi81

ना मैं चुप हूं ना गाता हूं, अकेला ही गुनगुनाता हूं