दी ग्रेट इंडियन किचन"

शहरों में बसा हर व्यक्ति अपने आपको एक पढ़े लिखें समाज का हिस्सा मान लेता है. जिसकी बाहर इज्जत है, सम्मान है वह दावा करने लगता है कि उनके परिवार में पितृसत्तात्मक सोच का बाक़ा भी नहीं है. "दी ग्रेट इंडियन किचन" फिल्म इसी विचार पर सवाल खड़ा करती है. जियो बेबी द्वारा निर्देशित यह मलयालम फिल्म इस विचार को तोड़ना चाहती है कि किचन में काम करती महिला और बाहर कुर्सी पर बैठकर घर के चाय पीते पुरुष एक खुशहाल, अच्छे परिवार का चित्रण नहीं हैं.

जियो बेबी ने फिल्म के जरिए दर्शकों तक ये दिखाने की बखूबी कोशिश की है, कि रसोई में पकते वव्यंजनों के अलावा औरत भी पकती है जिसे बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है क्यूंकि यह समाज में आम है जिसपर ध्यान देने की आवशकता नहीं जान पड़ती.

फिल्म की शुरुवात खुशहाली से भरी शादी से होती है जहाँ जल्द ही होने वाली दुल्हन (निमिषा सजयन) नृत्य का अभ्यास करती नज़र आती है , जबकि उसका परिवार दूल्हे (सूरज वेंजारामूडु) के आगमन की तैयारी कर रहा है। हलवा काटा जाता है, केले के पकौड़े तले जा रहे हैं, अप्पम बनाए जाते हैं - और कैमरा उन हाथों पर फोकस करता है जो यह काम करते हैं यक़ीनन इन हाथों ने चूड़ियाँ पहनी हुई है.

यह फिल्म में एक आवर्ती शॉट है; खाना बनाते, पीसते, साफ करते, पोंछते, झाड़ू लगाते समय महिलाओं के हाथ यह दोहराव जैसा लग सकता है लेकिन यहां निर्देशक जियो बेबी शायद चाहते हैं कि दर्शक उस अंतहीन चक्र की थकावट को महसूस करे जिसकी ध्वनि रोज़ हमारी रसोई से सुनाई पड़ती हैं मगर हमे उस ओर किसी क्रांति की जरुरत महसूस नहीं होती.यदि आप अपने आपको पूर्ण रूप से पुरुष मानते हैं तो इन दृश्यों को बार-बार स्क्रीन में आते देख ऊब जायेंगे मगर आपके भीतर कही कोई स्त्री का कण बसता है तो ये दृश्य आपको विचलित करे सकते हैं.

पात्रों का कोई नाम नहीं है, जी हाँ पूरी फिल्म में किसी को भी कोई नाम नहीं दिया गया. पति पत्नी कों "सुनती हो" कहकर बुलाते हैं तो पत्नी पति को"सुनिए जी"शायद इसलिए कि इस कहानी में कुछ भी अनोखा नहीं है यह इतना सामान्य है कि फिल्म निर्माण की शैली किसी वृत्तचित्र की तरह हैं.

जब निमिषा का किरदार अपने वैवाहिक घर में कदम रखता है तो वह शरमाती और मुस्कुराती रहती है. नए जीवन की सी अनुभूति यक़ीनन हर नवविवाहित को ये गुदगुदेती है. जब वह अपनी सास से डोसा के लिए साइड डिश के बारे में पूछती है, तो सास कहती है कि उनके घर में, उन्हें सांभर और चमांधी रोज़ बनती हैं बनाने चमांधी को हाथ से ही पीसना होता है क्योंकि घर के मुखिया, पिता को हाथ से पीसी चटनी ही पसंद है. इस दृश्य में कोई हर्ज़ भी नज़र नहीं आता ये तो अकसर ही होता हैं हर घर के अपने कुछ उसूल, पसंद या ना पसंद होते ही है.

सास बहु की इस वार्तालाप में ऐसा कुछ भी नहीं,यह छोटी-मोटी बातचीत है जो रसोई में आम बात है. सास रूढ़िवादी, उत्पीड़न करने वाली किस्म की नहीं है वास्तव में, वह एक सहयोगी की तरह है जो शानती से सारा काम अपना कर्त्तव्य मान कर करती है.

वही नवविहित बेटा यानी पति के पात्र की बात की जाऐ तो वह भी समान्य सा व्यक्ति हैं जिसमे नए विवाह का उत्साह झलकता है. फिल्म में दोनों पति पत्नी एक ऐसे जोड़े की भूमिका निभाते हैं जो एक तयशुदा विवाह में बंधे है. पति के रूप में सूरज अपनी पत्नी की भावनाओं से बेखबर है, पत्नी का रोज़ मर्रा का वही काम देख-देख कर दर्शकों को अपने आप में एक थकावट महसूस होने लगेगी.वही थकावट और काम से परेशान पत्नी किसी से कुछ नहीं कह पाती. अपने पति से कहना भी उसे व्यर्थ लगता हैं क्यूंकि वहअपने पिता की बिल्कुल दर्पण छवि है.यानी ऐसा आदमी जो उम्मीद करता है कि उसकी पत्नी उसके ब्रश पर टूथपेस्ट लगाएगी और सुबह उसे दे देगी तब तक वह एक आसान कुर्सी पर आराम से अखबार पड़ेगा.

ससुर का पात्र आधुनिक, श्रम बचाने वाली मशीनों से घृणा करता है वाशिंगमशीन का इस्तेमाल कर कपड़े धोती बहुं से वह बड़े प्यार से कहता है '' बेटी तुम भी क्या कपड़े मशीन में धोती हो इस से कपड़ों की रंगत गुम हो जाती है मेरे कपड़े तो मशीन में मत ही धोना" क्यों नहीं, जब उनके लिए मशीनों की तरह काम करने वाली महिलाएं हैं? दिलचस्प बात यह है कि फिल्म में कोई भी पुरुष शारीरिक रूप से हिंसक नहीं है यहां तक कि जब वे असहमत होते हैं और महिलाओं को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं, तब भी वे मीठी मुस्कान के साथ बोलते हैं. जैसे पत्नी के नौकरी करने की इच्छा पर ससुर मुस्कुरा कर कहते हैं "बेटी हमारे घर की औरतों पर ये शोभा नहीं देता जरा थाली में चटनी डाल दो" बस एक चटनी के पीछे उसकी अभिलाषाए हौले से दबादी जाती हैं. खाने की टेबल पर बगल में बैठा पति भी पिता की बात पर सहमत हो मुस्कुरा कर पत्नी की ओर देखता है.

यही बात "द ग्रेट इंडियन किचन" को दुखी विवाहों पर बनी औसत फिल्मों से भिन्न बनाती है.कोई प्रत्यक्ष घरेलू हिंसा नहीं है, ये ऐसे मुद्दे हैं जो महिलाओं के जीवन को इंच-दर-इंच ख़त्म कर रहे हैं जिनपर किसी एक्टिविस्ट, सोशलिस्ट विचारधाराकों का ध्यान अब तक नहीं गया.

फिल्म में ऐसे कई क्षण आते हैं जो दिखाते हैं कि निर्देशक कितने बढ़िया पर्यवेक्षक है. जैसे सास जब अपनी बेटी से मिलने जाती है तो पति की नजरों से दूर सलवार कमीज पहनती है. एक आम भारतीय परिवार में एक छोटी लड़की जिसे उसकी माँ के साथ भोजन करने को कहां जाता है जबकि पुरुष मेहमानों के साथ भोजन करते हैं. दो प्रकार की चाय बनाने का कष्टप्रद अनुरोध भले ही समान्य सी इच्छा है मगर रसोई में पहले से 4 भोजन बनाती औरत को इसपर खिन्न होने का भी अधिकार नहीं हैं. यहीं नहीं कभी-कभी अपने आपको किचन में भी सर्वश्रेष्ठ साबित करने के चलते आदमी खाना खुद बनाने की इच्छा करते हैं लेकिन खाना बनाने की प्रक्रिया में की गई गन्दगी को साफ करने के लिए महिलाएं ही आएँगी. प्लंबर को किया गया कॉल जो कभी पूरा नहीं होता, दीवार पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी खुश दिखने वाले जोड़ों की तस्वीरें... कुछ भी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताया गया है, कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। लेकिन आप समझ सकते हैं कि परिवार की संस्था मौलिक रूप से कितनी पितृसत्तात्मक है.

द ग्रेट इंडियन किचन तब भी काम करता अगर फिल्म कों इस छोटी कहानी में ही विसमृत कर दिया जाता.लेकिन कहानी एक कदम आगे बढ़ती है कि कैसे इस सभी आंतरिक स्त्रीद्वेष को धर्म और परंपरा द्वारा मंजूरी दी जाती है. जबकि महिलाएं इसका भार उठाती हैं, पुरुष नियमो कों मोड़ देते हैं क्योंकि यह उनके लिए उपयुक्त है.

किचन सिंक में फिल्म की शुरुवात से फसे गंदे पानी जिसे हाथ से कोशिश कर बार-बार पत्नी साफ कर दिया करती थी. जिसे ठीक करने के लिए वो पूरी फिल्म में पति से कहती नज़र आई, आखिर में वहीं गन्दा पानी घर के पुरषों की अकल ठिकाने लगाने के काम आता है.

बिना कोई लांछन लगाए या कोई समझौता किए, जियो बेबी ने अपनी नायका को बंधनों से मुक्त कराया और मजबूती से खड़ा कर दिया. क्लिमैक्स का दृश्य जब नायिका वहीं गन्दा पानी अपने पति और ससुर के मुह पर फेक कर चली जाती हैं दर्शकों के रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है.

द ग्रेट इंडियन किचन वह फिल्म नहीं है जिसे हम बड़े पर्दे पर देखने के आदी है.सिर्फ इतनी सी बात इस फिल्म के बारे में बताने के लिए पर्याप्त है.

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Pallavi81

ना मैं चुप हूं ना गाता हूं, अकेला ही गुनगुनाता हूं