मेरे पैर पिताजी जैसे हैं...

स्थिर, बेचैन, गंभीर, अजीब सी शाम है, कोई हवा पत्ता तक नहीं हिलाती, मैं भी तंग, हताश, थकी हुई मेट्रोँ के आखिरी छोर पर खड़ी एक गहरी सास छोड़ती हूं.

ओस के धब्बों से ढकी खिड़की के उस पार सूरज डूबने को कितना बेताब हुआ जाता है,जैसे अगले स्टेशन पर उसी का घर हो.

मैं थकी आँखों में काले घेरे दबाए अपने पैरो को देखती हूं , बड़ी देर हुई इन्हें खड़े रहते अब ये चौपाली मार कर ठहरना चाहते हैं. क्रूरता तो क्या कहूं, बस अपनी नाकामियों ने झुंझलाया हुआ है, कई दफा लगता है गांव भाग जाऊँ उन्हीं अंधी पहाड़ियों पर, जहाँ मैं छुपा करती थी,  मुझे याद है एक दोपहर अकेली मल्ली धार (पर्वत) चली गई और तिमुर के पेड़ के नीचे डायरी पर कुछ गढ़ने लगी पास बह रही राम गंगा की कल-कल ने मुझे सुला दिया. पूरा गांव ढूँढ़ता आ पहुंचा, और मैं निश्चिंत निद्रा में विलीन सपना देखती मुसकुरा रही थी.

ऐसी आकांशा जी में अब और अधिक विकसित होती है.. सब छूटता है, दूर है, मृगतृष्णा होती है। डगमगाता विश्वास, लोगों से खिन्न सी आती है. समय से पहले बुढ़ापे की यह अनुभूति कमज़ोरी के लक्षण हैं.

इस से पहले हार को अपना ही लेती कि कल रात नजाने क्यों एक सपना हुआ.देखती हूं कि मुझे पैर में कोई जूता आता ही नहीं, दुकानदार परेशान मैं परेशान,  वो कहता है “दीदी जी बड़े लम्बे पैर हैं आपके.. कोई जूता आता ही नहीं ”।

तभी अचानक पिताजी अगली बैंच से मुस्कुराते हुए कहते हैं “अरे! आएगा कैसे उसके पैर मुझ पर जो गए हैं.”

बस मैं अर्थ समझ गई । मेहनत करती हूं क्योंकि मेरे पैर पिताजी जैसे हैं।

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Pallavi81

ना मैं चुप हूं ना गाता हूं, अकेला ही गुनगुनाता हूं