"डोसा बेचता हूं इसलिए लोग साऊथ का समझते हैं, मैं तो बिहारी हूं"

जनवरी की एक शाम में नॉएडा सेक्टर 15 मेट्रो से कुछ ही मीटर की दूरी पर डोसा का ठेला लगाते ललन भैया से किसी ने पूछा "क्या आप साउथ इंडियन हो" तो वे हस दिए और मुस्कुरा कर बोले नहीं मैं तो बिहारी हूं। जिसे सुनकर वहां खड़े सभी लोग कोतहूल में पड़ गए। ऐसा इसलिए क्योंकि लल्लन भैया के चेहरे का तेज हाजिर जवाबी और भाषा में इतनी स्पष्टता को देखकर कोई भी यह नहीं कह सकता कि वह बिहार के किसी गांव से है। ऐसी बात नहीं है कि किसी बिहार रहवासी में यह तीनों विशेषताएं नहीं हो सकती दरअसल लल्लन भैया की तेज़ अंग्रेजी उनके बारे में बहुत सारे प्रश्न खड़े कर देती है।

बिहार दरभंगा से आए लल्लन कुमार बीए पास है, मगर घर की तंगी के चलते उन्हें आमदनी के लिए रोज़गार ढूढ़ना पड़ा इसीलिए वे आज एक डोसा का ठेला चलाते हैं। लल्लन 19 साल की उम्र में दिल्ली आए थे उनका मकसद एक आम मध्यवर्गीय परिवार के लड़के की तरह अच्छा पैसा कमाना था। उन्होंने जरुरत के हिसाब से पढ़ाई भी कर ली थी। उन्हें उम्मीद थी कि वे कोई अच्छी नौकरी पा जायेंगे। मगर सच्चाई से वंचित लल्लन ने तब अपने जीवन में बेरोज़गारी महसूस की जब उनकी जेब में पेट भरने को एक पैसा नहीं रहा। बहुत कोशिशो के बावजूद जब उनके हाथ कोई नौकरी नहीं आई तब उन्होंने निराश होकर हार माननी चाही।

लल्लन बताते हैं कि जब वो घर वापस जाने के लिए अपना बोरिया बिस्तर बाँध रहे थे तब उनका एक पुराना दोस्त उन्हें बस स्टैंड पर अचानक ही मिल गया उन्होंने जब उसे अपनी दशा बताई तो उसने उनसे एक बात कही जिसने उनके जीवन का नज़रिया बदल दिया उस दोस्त ने कहां कि "दिल्ली किसी को भूखा नहीं मरने देती दोस्त अगर तुम सक्षम हो, तुम सक्षम ही नहीं हो तो इसमें इस शहर कि कोई गलती नहीं" इस बात ने उन्हें एक नई दिशा दे दी वे समझ गए कि यहां से भागने का मतलब उनकी काबलियत की विफलता होगी ।

उन्हीं की तरह हर साल अलग-अलग शहरों से करीब 40 प्रतिशत नौजवान नौकरी की तलाश में दिल्ली जैसे बड़े शहरों में कमाने की आस लेकर आते हैं। और निराश होकर जाते है। कभी कभी तो ये निराशा गलत कदम उठाने पर मजबूर भी कर देती हैं। यह भी एक वजह हैं जिस से दिल्ली में पिछले 10 सालों में आत्महत्या की दरें 70 प्रतिशत तक बढ़ी है। आमदनी और पढ़ाई का बोझ लिए नौजवान कभी कभी इसे सह नहीं पाते और ऐसा कदम उठा लेते हैं।

मगर लल्लन भैया ने अपना नाम उनमें दर्ज नहीं होने दिया और अपने खाना बनाने ही कुशलता का उपयोग करते हुए 6 साल पहले यह ठेला खोला। शुरुवात में उन्हें ये छोटा काम लगता था लेकिन धीरे-धीरे लोग जब उनके ज्ञान और उनके बोलने के कौशल की ओर आकर्षित होने लगे तब उन्हें इस काम को करने में मजा आने लागा। उनकी भाषण की कौशलता और समसायिक ज्ञान का लुफ्त उठाते हुए। ठेले में अकसर लोग गंभीर मुद्दों में उनसे चर्चा करते नज़र आते हैं। अगर किसी व्यक्ति को डोसा नहीं भी खाना हो, वो तब भी उनके पास आकर किसी ख़बर पर बात करने लगता है। जिस से वहां भीड़ कभी हटती ही नहीं। लोग कई बार उन्हें ये तक कह देते हैं कि डोसा बनाते-बनाते उनके बोलने के लहजे में दक्षिण के लोगों जैसा टोन आने लगा है इसीलिए अब वे साउथ इंडियन लगते हैं।

आज ललन भैया को सेक्टर 15 में रहने वाले लगभग लोग जानते हैं और उनके महीने की इनकम भी घर चलाने के लिए पर्याप्त है। ये काम उनके मन की नौकरी जैसा तो नहीं है मगर वह इसे उस से बहुत बेहतर मानते हैं। ललन भैया का नौकरी की तलाश करते नौजवानों के लिए यहीं सन्देश है कि "आज काम की कोई जात नहीं है जात तो इंसान की होती है, अगर जूते पालिश करने से आप 1 लाख कमाते हैं तो फिर आप मोची नहीं कहलाते आप बिजनेसमैन हैं, इसीलिए ज़्यादा सोचिए नहीं आपको जिस काम को देखकर लगता हैं की आप उसे बहुत अच्छे से कर सकते हैं तो उसे करना शुरू कर दे एक दिन आप जरूर सफल होंगे"।

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Pallavi81

ना मैं चुप हूं ना गाता हूं, अकेला ही गुनगुनाता हूं