मेरा दिल्ली आकर सबसे पहला अनुभव क्या था जानते हैं ? बिजली के पोल में लपीटी हुई मकड़ी के जाल जैसे तार ,जिस भी गली में जाओ जहां जाओ केवल तार। जितना उलझा जीवन दिल्ली में नहीं है उससे दुगनी उलझी हुई यह गलियों में लगी तारे हैं । तीन घर मैंने इसलिए ठुकराएँ क्योंकि उसके बाहर लगी पोलो में सांप की तरह लिपटी हुई तारे मुझे कुत्सित करती थी । मैं जानती हूं कि सालों से इन तारों के बीच में जीवन लोग काटते आ रहे हैं। लेकिन मेरा दर तारों से इसलिए है क्योंकि आए दिन इनसे जुड़ी कोई ना कोई भयावी खबर अखबार में जरूर होती है।
लगभग खबर की बाई लाइन में दिल्ली का ही नाम होता है हाल ही में एक खबर पढ़ी थी जिसमें सड़क पर जा रहे एक बाइक सवार पर हाइपरटेंशन वायर गिर गयी जिससे युवक की मौके पर ही मृत्यु हो गई।
पिछले साल दिसंबर में मुखर्जी नगर के एक पीजी में आग लगने से तहलका मच गया था,और म्युनिसिपालिटी के सामने एक बार फिर गलियों में रह रहे लोगों की यह शिकायतें उठी थी कि पतली गलियों में खुले तारों की वजह से इस तरह के हादसों से उन्हें कब छुटकारा मिलेगा। हमारे लिए यह केवल एक दिन की खबरें हो सकती है लेकिन तार की चपेट में करंट लगकर किसी की मृत्यु हो जाना बहुत आकस्मिक है। दर्दनाक भी ,लोगों के लिए नहीं बेजुबान जानवरों के लिए भी अति घातक है।
सड़क पर घूम रही गाएं या आवारा कुत्ते या फिर पेड़ पर शांति से रह रहे पक्षियों के लिए यह काल बनकर आते हैं। कभी अचानक किसी गाय के पैर में फंस जाने से वह घंटों वहां तड़पती रह जाती है और दम तोड़ देती है। कोई आवारा कुत्ता किसी पेड़ की टहनी से टूटे हुए लटकते तार की चपेट में आकर करंट से मर जाता है तो कभी पक्षी इन तारों पर बैठते हैं और एक झटके में चिपक कर मर जाते हैं।
इसके लिए बिजली कम कर देना या बिजली काट देना समाधान नहीं है। आधुनिक दुनिया की सबसे ज्यादा जरूरत बिजली ही तो है। मगर क्या यह आधुनिकता हमें ऐसा कुछ नहीं दे सकती जिससे इन तारों को समेटा जा सके और इनसे होने वाली हानि से बचा जा सके।
दिल्ली जैसा शहर कम चुनौतियों से भरा हुआ नहीं है उसमें फिर रहने खाने के लिए जब ऐसे तनाव सामने आते हैं तो आदमी हार जाता है।
इसके लिए फिलहाल एक आम नागरिक के तौर पर हम कंप्लेंट कर सकते है और करना भी चहिए। आखिर जिस जगह पर हम रह रहे हैं उसे रहने लायक तो बननना ही पड़ेगा।
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